बुधवार, जनवरी 14, 2015

कैसे हैं तुम्हारे हाल?

भई और सुनाओ सुन्दर लाल कैसे हैं तुम्हारे हाल?
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
आ रही योजना नई नई पर क्या बदला है अब तक
पहले थे जैसे आज भी वैसे ही हैं फटेहाल
हमें दिखा के सपना रोटी का, अपनी ही सेंक रहे हैं
हर ओर बेमानी, धोखाधड़ी का हैं फैला जंजाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
एक-एक कर कोड़ी थी जोड़ी, अपने खाने-पीने को
सब लूट लिया जमाखोरों ने, है कर दिया कंगाल
कुछ खा-खा करके फूट रहे, गुब्बारे बन गए हैं
कुछ सूख रहे बिन रोटी को, बनकर रह गए कंकाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
इक तरफ हो रहे सम्मलेन प्रवासी भारतीयों के
इक तरफ छिप रही सच्चाई, अब कौन सी है ये चाल
गिर-गिर के संभाल भीं पाये हम आज तलक भी खुद को
फिर भी कुछ लोग हमें कहते, अरे! खुद को तू संभाल
हमें तोड़ रही गरीबी है, कुछ लोग हैं मालामाल
मैं क्या बताऊँ भाई मेरे बस हाल तो हैं बेहाल!
रो-रो कर आँखें सूख गई, और पसली आ गईं बाहर
क्या कहें के कैसे जी रहे, अब हो गए हैं बदहाल
बस हो गए हैं बदहाल!!!
क्या अब भी जानना चाहो हो कैसे हैं हमारे हाल!!!
कैसे हैं हमारे हाल!!!
-अश्वनी कुमार

मंगलवार, सितंबर 30, 2014

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है.

मैं जब भी खुद से तेरे बारे में कुछ जिक्र करता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

वो छत भी याद है मुझको, पतंगे उड़ती हुईं
खतों में जब तेरे, मैं खुद को ढूंढता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

वो तारे देखना और ढूंढना चेहरा तेरा उनमें
वो रातें याद आयें तो

हां मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

तेरा वो तांकना खिड़की से, गली में खोजना मुझको
वो लम्हा गुजरे जब फिरसे

हां मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

सुबह उठना वो जल्दी से, वो सजना संवरना
जब भी तड़प वो उठती है

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ दोस्त भी जुदा होने लगे थे मुझसे उस दौरां
खुदी में फिर से खौऊँ तो हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है.

हाँ मुझे दर्द होता है मैं जब भी सांस लेता हूँ

हाँ मुझे दर्द होता है.

To be continued…

-अश्वनी कुमार

सोमवार, सितंबर 29, 2014

जितने भी ग़म सहते रहे...

जितने भी ग़म सहते रहे

जितने भी ग़म सहते रहे, कलम से सब बहते रहे.
करके बहाना नज़्म का, हम पन्नों से लिपटे रहे.

दर्द क्या है हमने जाना, दूर होकर ऐ खुदा.
अपने ही झूले से हम, सूली बन लटके रहे.

हो गया तबादला इस दर्द से उस दर्द में.
बनके लहू ये आंसू, आँखों से गिरते रहे.

जिसका लिखा है ग़ज़लों में वो नाम बस तेरा ही है.
तुझे इतना ही बस बताने को, हम उम्रभर लिखते रहे.

रात दिन जो था मुझे वो इंतज़ार है तेरा.
किवाड़ों पर आंखें बिछी, सारे दिए बुझते रहे.

ना चैन आये है मुझे न आये है करार ही.
तेरी ही तलाश में अब दर बदर फिरते रहे.

ज़िंदा लाश बन गया है “आशू” उसे ये क्या हुआ.
अब चले जहां भी, वहीँ निशाँ पड़ते रहे.


-अश्वनी कुमार

कभी तुम हो बोतल

कभी तुम हो बोतल

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी तुम बनी हो नदिया की धारा
कभी तुम बनी हो साहिल हमारा

कभी तुम हो फूलों की खुशबु सुहानी
कभी तुम हो झरनों से गिरता वो पानी

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी तुम हो सपनों से नींदें उड़ाती
कभी गाके लौरी हो मुझको सुलाती

कभी तो मुझे हो तुम कितना सताती
कभी पास आके फिर मुझको मनाती

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी जब भी देखो हो शरमा के मुझको
मेरा दिल करे भर लूँ बाहों में तुझको

कभी तुम मुझे हो मुझी से चुराती
कभी आके दिल अपना मुझको दे जाती

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

कभी जब न होती हो आँखों के आगे
मेरा दिल न जाने कहाँ कहाँ भागे

कभी जब तुम मुझसे हो जाती हो गुस्सा
मेरा दिल करे खुद को मरुँ इक मुक्का

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो

सताया है तुमको बहुत मैंने फिर भी
कहती हो ये भी तो फितरत है दिल की

कभी तुम हो बोतल
कभी तुम नशा हो
कभी तुम मज़ा हो
कभी तुम सजा हो


-अश्वनी कुमार

शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

इंतज़ार बाक़ी है.


इंतज़ार... इंतज़ार इंतज़ार बाक़ी है.
तुझे मिलने की ललक और खुमार बाक़ी है.

यूँ तो बीती हैं सदियाँ तेरी झलक पाए हुए.
जो होने को था वो ही करार बाक़ी है.

खाने को दौड़ रहा है जमाना आज हमें.
*1यहाँ पे एक नहीं कितने ही जबार बाक़ी है.

वोही दुश्मन है, है ख़ास वोही सबसे मेरा.
दूरियां बरकरार, फिर भी इंतेज़ार बाक़ी है.

यूँ तो है इश्क़ हर जगह, फैला अनंत तलक.
मगर वो खुशबु इश्क़े जाफरान बाक़ी है.

Picture By Rudolf

तेरा कसूर नहीं पीने वाले दोषी हैं.
तू ग़म को करने वाला कम महान साक़ी है.

पलटती नांव से पूछो क्या डरती लहरों से हो.
कहेगी न, क्योंकि संग में उसके कहार माझी है.

जहां पहुंचे न रवि, कवि पहुंच ही जाता है.
हम क्यों हैं अब भी यहाँ पर मलाल बाक़ी है.

जब भी लिखें तो जमाने के आंसू बहने लगे.
अभी लिखने में मेरे यार धार बाक़ी है.

कभी कोई, कभी कोई मिज़ाज़ बदले तो हैं.
जो था बचपन में, वोही मिज़ाज़ बाक़ी है.

यूँ तो हम भूल गए बात सारी, शख्स सभी.
जो भी है संग उसमें माँ की याद बाक़ी है.

तराने यूँ तो बहुत हैं जिन्हें हम सुन लेते.
जिसे सुनने की चाह, तराना-जहान बाक़ी है.

जो बैठे हैं अपने में सिमट के, उठ खड़े हों.
आगे तुम्हारे सारा आसमान बाक़ी है.

कहाँ ढूँढू ऐ ‘आशू’ तुझको इन पहाड़ों में.
इनकी ऊँचाइयों में कहाँ प्यार बाक़ी है?

*1 (जबार- जाबिर- ज्यादती करने वाले)
-अश्वनी कुमार 


गुरुवार, सितंबर 25, 2014

याद आता है मुझको किस्सा पुराना

के याद आता है मुझको किस्सा पुराना
तिरे मेरे मिलने का था वो जमाना

के बारिश भी थी हलकी हलकी वहां पर
ख़ुदा ने था खोला जैसे रोशान दाना

के तरुवर की छाया से छनता वो पानी
हाँ ऐसे था गिरता हो मुझको सताना



मैं बैठा था खुद ही से मिलने जहां पर
उठा जब मिला फिर मुझे इक खज़ाना

हाँ जाता कहाँ तन्हा राहों के पीछे
जहां पे रुका था मेरा ही तराना

वो बेचैन साहिल सुनसान था पर  
बचा ही लिया जिनको था पार जाना

तरसते हुए सारा जीवन बिताया

के मिलता नहीं अब भी भर पेट खाना

सोमवार, सितंबर 15, 2014

वो हलकी हलकी बारिशें


वो हलकी हलकी बारिशें मुझे अब भी याद है
न साथ होके भी तू मेरे ही साथ है.

हर बात कर ली मैंने जब दूर जा रही
वो अब भी अधूरी है जो असली बात है.
 
झरना सा झर रहा था आँखों से मोती का
मैं चुन न पाया उनको, मलाल आज है.

उसकी रजा की सोच कर चुपचाप बैठा था
दिन तो गुजर गए बहुत एक बाकी रात है.

मैंने खुदी को समझा सबसे करीब उसके
पर सूना है उसका कोई और खास है.

हर शब पुकारे मुझको आ जा करीब आ जा
कैसे कहूँ मैं भोर की अलग बिसात है.

वो लडकियां जो सडकों पर शिकार बन रही
क्यों दुनिया में उनके लिए फैला तेज़ाब है?

वो छत पड़ोसियों की, वो पतंगें उड़ाना

वो यादें भुरभुरी से मेरे अब भी साथ हैं.

-अश्वनी कुमार